डब्ल्यूएसी: विशेषज्ञों ने औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए नई कार्यनीतियों की मांग की

डब्ल्यूएसी: विशेषज्ञों ने औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए नई कार्यनीतियों की मांग की
Panaji / December 11, 2022

पणजी, 11 दिसंबर: पृथ्वी से हर दो साल में एक संभावित दवा लुप्त हो रही है और विलुप्त होने की दर प्राकृतिक प्रक्रिया की तुलना में सौ गुना तेज हैइस बात पर ध्यान दिलाते हुए विशेषज्ञों ने कहा कि केवल औषधीय पौधों के संरक्षण के लिए केंद्रित और नवीनतम कार्यनीतियों के लिए एक मजबूत आधार निर्मित करना जरूरी है क्योंकि मात्र जागरूकता अभियानों पर भरोसा करना ही काफी नहीं है।

विश्व आयुर्वेद कांग्रेस (डब्ल्यूएसी) और आरोग्य एक्सपो 2022 के 9वें संस्करण में ‘कंजर्वेशन नीड्स ऑफ मेडीसनिल प्लांट्स’ ('औषधीय पौधों की संरक्षण आवश्यकताएं') पर एक सत्र में बोलते हुए वक्ताओं ने कहा कि देश के 900 प्रमुख औषधीय पौधों में से दस प्रतिशत पौधे "संकटग्रस्त" श्रेणी में हैं।

 8 से 11 दिसंबर तक चलने वाले इस सम्मेलन का आयोजन विश्व आयुर्वेद फाउंडेशन (विज्ञान भारती की एक पहल) द्वारा आयुष मंत्रालय और गोवा सरकार के सहयोग से किया गया है।

छत्तीसगढ़ के स्टेट मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स बोर्ड के सीईओ श्री जे.ए.सी.एस.राव ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ       (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने अनुमान लगाया है कि दुनिया की लगभग 20,000, 25,000 संवहनी पौधों (वास्कुलर प्लांट) की प्रजातियों में से लगभग 10 प्रतिशत अलग-अलग स्तर के खतरों से गुजर रही हैं।

लगभग 5000 प्रजातियां भारत में स्थानिक (किसी निश्चित क्षेत्र में नियमित रूप से पाई जाने वाली-एंडेमिक) हैंजबकि लगभग 1500 प्रजातियां (लगभग 10 प्रतिशत फूल वाले पौधे) अलग-अलग स्तर के खतरों का सामना कर रहे हैं।

श्री राव ने कहा कि भारत में "रेड-लिस्टेड" (संकटग्रस्ट प्रजातियों की लाल सूची) पौधों की संख्या 387 हैजबकि 77 गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियां हैंऔर छह प्रजातियां "विलुप्त" श्रेणी में हैं। वन में दो प्रजातियां पूरी तरह से गायब ही हो गई हैं।

 उन्होंने कहा कि अति-उपयोगवन्यजीवों की आबादी पर उद्योग की अत्यधिक निर्भरताआवास विनाश और शहरीकरणविनाशकारी कटाई के तरीकेउचित खेती पद्धतियों की कमी और अनियंत्रित विदेशी प्रजातियों के खतरेइन प्रजातियों के विलुप्त होने के कारण हैं।

उनके अनुसारदुनिया भर में वन्य संसाधनों की मांग 8 से बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है।

उन्होंने कहा, "हमें क्षेत्र अध्ययनउचित दस्तावेजीकरणन्यूनीकरण उपायलुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम, 1973 जैसे विशेष कानून और पुनर्प्राप्ति कार्यक्रमों जैसी संरक्षण कार्यनीतियों को अपनाना होगा।"

 गोवा के राज्य जैव विविधता बोर्ड (स्टेट बायोडाइवर्सिटी बोर्ड-एसबीबी)के सदस्य सचिव डॉ. प्रदीप विठ्ठल सरमोकदम ने पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए उपजीवन और औषधीय पौधों की आबादी को समझने के माध्यम से जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

भारत में लगभग 45,000 पौधों की प्रजातियां हैं और उनमें से 7,333 औषधीय सुगंधित पौधे हैं। लेकिन केवल 15 प्रतिशत औषधीय पौधों की खेती की जाती है जबकि शेष 85 प्रतिशत उद्योगों द्वारा वन पारिस्थितिकी तंत्र और अन्य प्राकृतिक आवासों से एकत्र किया जाता है।

 डॉ. सरमोकदम ने कहा कि चिकित्सा पौधों के उचित दस्तावेजीकरणउनकी उपलब्धता और बहुतायत को संरक्षण के उपायों के रूप में व्यवस्थित रूप से स्थान दिया जाना चाहिए।

 केंद्रीय आयुष मंत्रालय के पूर्व संयुक्त सचिवऔर राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड, (नेशनल मेडीसनल प्लांट्स बोर्ड) के पूर्व सीईओश्री जितेंद्र शर्मा ने कहा, "नीतिगत हस्तक्षेप के संदर्भ मेंयह पता लगाना महत्वपूर्ण है कि इस देश में औषधीय पौधों के कच्चे माल की आपूर्ति श्रृंखला के साथहम प्राकृतिक संसाधन संरक्षण प्रयासों में कहां तक सक्षम हो पाए हैं।”

यह देखते हुए कि 80 प्रतिशत औषधीय पौधे वन से मिलते हैंउन्होंने कहा कि उनमें से ज्यादातर अनियमित ढंग से आ रहे हैं। उन्होंने कहा, “वन्य से संवर्धित संसाधनों से आपूर्ति श्रृंखलाओं का एक सहज जुड़ाव एक बड़ी चुनौती है। भारतीय वन अधिनियम 1927 में एक संशोधन करने की आवश्यकता हैक्योंकि राष्ट्रीय पारगमन परमिट (नेशनल ट्रांसिट परमिट) के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वन उपज को देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाने की अनुमति देता हो।”

श्री शर्मा ने एक राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल/प्राधिकरण स्थापित करने का सुझाव दियाजहां कोई भी घरेलू या खेती के तरीके से दुर्लभलुप्तप्रायसंकटग्रस्त और कमजोर प्रजातियों को उगाता हैसत्यापन के लिए उस जानकारी को अपलोड कर सकता है। उन्होंने कहा कि एक बार जानकारी एक निश्चित समय के लिए सार्वजनिक डोमेन (क्षेत्र) में होने के बादकिसी किसान को जब उसे उगाना या किसी दूसरे स्थान पर भेजना हो तो किसी भी प्राधिकरण द्वारा परेशान नहीं किया जाना चाहिए।

 

 फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) में आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. कल्याणी नागरसेठ और गोवा विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर जनार्थनम (सेवानिवृत्त) भी इस अवसर पर उपस्थित थे। कृषि विज्ञान विश्वविद्यालयबेंगलुरु के प्रोफेसर केएन गणेशैया इस सत्र के संचालक थे।

Photo Gallery