आयुर्वेद का सहारा लेने वाले कोविड मरीजों में केवल आधा प्रतिशत को ही अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था: आयुष सचिव

आयुर्वेद का सहारा लेने वाले कोविड मरीजों में केवल आधा प्रतिशत को ही अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था: आयुष सचिव
Panaji / December 9, 2022

पंजिम (गोवा), 9 दिसंबर । केंद्रीय आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने शुक्रवार को कहा कि कोविडि-19 वायरस महामारी के दौरान देश में घर में ही रह कर आयुष के नुस्खों के साथ स्वास्थ्य लाभ करने वाले मरीजों के अस्ताल में दाखिल होने का अनुपात आधा प्रतिशत से कम था जबकि उस समय संक्रमित मरीजों के अस्तपाल में भर्ती होने की  दर सात प्रतिशत के आस पास थी।

  पद्मश्री सम्मान से सम्मानित वैद्य श्री कोटेचा यहां चार दिवसरीय विश्व आयुर्वेद सम्मेलन के दूसरे दिन एक पूर्ण अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे। यह सत्र राष्ट्रीय आयुष  अनुसंधान सहयोग-संघ (एनएआरसी) पर चर्चा के लिए आयोजित किया गया था जिसमें विश्व में आयुर्वेदिक चिकित्सा के प्रति आकर्षण बढ़ाने के लिए सत्यापित आंकड़ों के महत्व पर बल  दिया गया। इस सत्र में वक्ताओं ने स्वास्थ्य क्षेत्र , विशेष रूप से आयुष क्षेत्र में अलग अलग विधाओं में अध्ययन एवं अनुसंधान के आंकड़ों के साझा किए जाने और पूरी तरह अलग-अलग कोठरी में सीमित रह कर काम करने की मानसिकता से उबरने पर बल दिया।

   आयुष सचिव ने कोविड के दौरान कराए गए एक अध्ययन का उल्लेख करते हुए कहा, ‘हमने सेवा भारती, केंद्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) और कुछ अन्य विश्वविद्यालयों के साथ मिल कर एक लाख मरीजों के आंकड़े एकत्रित किए । हमने पाया कि उनमें होम आइसोलेशन (घर में पृथक रह कर स्वास्थ्य लाभ कर रहे) में किसी न किसी आयुष पद्धति के नुस्खे का सहारा लेकर स्वास्थ्य लाभ कर रहे 65,000 हजार मरीजों में से केवल करीब 300 मरीजों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। हास्पिटलाइजेशन की यह दर आधा प्रतिशत से भी कम  है , जब कि उस समय देश में कोविड संक्रमितों के अस्पताल में दाखिल किए जाने की दर सात से दस प्रतिशत तक थी।’

  इस सत्र को पुणे के विख्यात संधिवात रोग ( जोड़ों के दर्द) के विशेषज्ञ डॉ अरविंद चोपड़ा, राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं तंत्रिका विज्ञान (निमहांस) के डॉ किशोर कुमार रामकृष्ण , देश में चिकित्सा अनुसंधान में आचार समीक्षा समिति मंच की वैज्ञानिक और आईसीएमआर की पूर्व महानिदेशक डॉ नंदिनी कुमार और अमृता सेंटर ऑफ आयुर्वेद के विशेषज्ञ डॉ राम मनोहर और नीति आयेग के वरिष्ठ परामर्शदाता  डॉ के  मदन गोपाल ने वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को विश्वस्तर पर स्थापित करने के लिए विश्वसनीय आंकड़ों के महत्व और चिकित्सा की अन्य विधाओं के साथ समन्वय पर बल दिया।

   श्री कोटेजा ने चर्चा शुरू करते हुए कोविड महामारी के समय आयुष, जैव प्रौद्योगिकी विभाग और स्वस्थ्य मंत्रालय के तहत काम करने वाली संस्थाओं के सहयोग से विकसित की गयी आयुष64 आयुवेर्दिक औषधि का जिक्र किया। औषधीय वनस्पतियों और जड़ी बूटियों से विकसित यह दवा संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने में कारगर साबित हुई है। उन्होंने आयुर्वेदिक पद्धति के प्रति लोगों के विश्वास का उदाहरण देते हुए कहा कि कोविड महामारी के दौरान भारत में 90 प्रतिशत लोगों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आयुर्वेदिक दवाओं और घरेलू  नुस्खों का उपयोग किया। उन्होंने इस अधिवेष के उद्घाटन सत्र में भी इस बात का उल्लेख किया था।

    उन्होंने कहा कि    ‘कोविड के दौरान हमने देखा , कोई भी संस्था अपने शुरू में अपने आंकड़े साझा करने के लिए तैयार नहीं थी। पर आपसी सहयोग से हमने छह माह में आयुष 64 को विकसित कर लिया जो कोविड की राकथाम में कारगर रही।’

   आयुष सचिव ने कहा, ‘हमें मिल कर काम करने की जरूरत है। इसी के लिए केंद्रीय कैबिनेट सचिव ने सचिवों की एक समिति बनायी है जिसमें न केवल आयुष और स्वास्थ्य मंत्रालय के विभागों बल्कि , वाणिज्य और नीति आयोग के सचिव भी रखे गए हैं।’  उन्होंने कहा  कि सचिवों के इस फोरम का उद्येश्य आपस में यह विचार करना है कि सरकार के सभी विभागों इस क्षेत्र में मिल कर कैसे काम कर सकते हैं।

 उन्होंने यह भी कहा कि अभी आयुष चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में कौशल के अभाव की बात स्वीकार की जानी चाहिए और इससे उबरने के बारे में सोचना चाहिए। उन्होंने इसके लिए सभी पद्धतियों के संस्थानों के बीच मिल कर काम करने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा, -भारतीय पद्धति विज्ञान पर आधारित है। इसको समझने और आयुष के काम को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए आपस में सहयोग करने तथा आंकड़े के आदान प्रदान की जरूरत है।

   आयुष सचिव ने  छात्र-छात्राओं से आयुष रिसर्च पोर्टल पर पड़े 37 हजार अनुसंधान पत्रों को देखने और उनसे नए विचार लेकर उन्हें आगे बढ़ाने का आह्वान किया।

  डॉ अरविंद चोपड़ा ने संधि-वाता रोगों में आयुर्वेद के प्रयोग पर अपने लंबे अनुसंधान के आधार पर कहा, ‘आयुर्वेद प्रभावी है पर आयुर्वेद को आधुनिक दुनिया के लिए आधुनिक बनाने की जरूरत है।’ उन्होंने कहा, ‘ सम्पूर्ण व्यवस्था में तारतम्य का फायदा तभी है जब इसका परिणाम अलग अलग हितधारकों के अलग अलग प्रयास से बढ़ कर हो।’

 निमहांस के डॉ किशोर कुमार ने कहा, ‘ अब विचार मंथन का समय है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र के लोग आयुर्वेद पद्धति के साथ काम करना और इसमें योगदान देना चाहते है।’ उन्होंने अस्पतालों में भारतीय वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों और एलोपैथी के मिले जुले उपचार की व्यवस्था पर कहा कि इसकी शुरुआत हो चुकी है पर अभी समन्वयय की दिशा में काम करना बाकी है। उन्होंने मानिसक रोगों के उपचार में योग और आयुर्वेद के प्रभावी होने के अनुभव साझा करते हुए  कहा, ‘कोलोकेशन (एकजगह बैठना), कोलैबोरेशन (सहयोग) तो हो चुका है पर इंटिग्रेशन (समन्वय) अभी नहीं हुआ है। इस समन्वय के लिए सभी पद्धतियों के लोगों को बैठ कर विचार करना होगा।’ उन्होंने कहा, ‘ हमें एक सर्व-समन्वयकारी सरकारी दृष्टिकोण की जरूरत जरूर है पर जरूरत इस बात की है कि यह काम नीचे से ऊपर की ओर बढ़े जिसमें हर किसी को एक दूसरे के साथ आपस में चर्चा का अवसर मिले।’

  सुश्री नंदिनी कुमार ने कहा , ‘ वैश्वीकर के बाद आंकड़ों की पुष्टि की मांग बढ़ी है। समय की जरूरत है कि हम मिल कर काम करें। इससे हम बेहतर तरीके से काम कर सकते हैं।’ उन्होंने पशुओं पर किसी दवा के प्रभाव के अध्ययन को पूरी तरह मनुष्यों के विषय में लागू किए जाने के दुष्परिणामों के प्रति सावधान किया।

  सुश्री कुमार दवाओं के परीक्षण और डाटा संग्रह में नैतिक आचरण पर बल देने हुए कहा , ‘किसी व्यक्ति पर कोई चिकित्सकीय  प्रयोग करते  समय उसकी मौखिक सहमति का भी विधिवत दसवेजीकरण जरूरी है। उन्होंने कहा, ‘यदि किसी औषधि के परीक्षण में मानकों का प्रयोग नहीं किया गया है तो उसका परिणाम अच्छा नहीं हो सकता। इसके लिए प्रकिया के दस्तावेजीकरण जरूरी है।’

   डॉ राम मनोहर ने चरक संहिता और सुश्रुत संहिता के विभिन्न श्लोंकों का उद्द्धरण देने हुए कहा कि आयुवेद एक पूर्व विज्ञान है । इसमें निरीक्षण, परीक्षण और निर्ष्कष के विधान स्पष्ट है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में अब समग्र चिकित्सा प्रणाली की ओर रुझान बढ़ा है और वे एलोपैथी के साथ प्रकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी तथा आयुर्वेद  को भी शामिल कर रहे हैं।

  डॉ मनोहर ने कहा , ‘आयुर्वेदिक पद्धति में आज विडंबना यह है कि अनुसंधान और व्यवहार में तालमेल नहीं है। जरूरत यह बताने की है कि अनुसंधान कैसे किया जाए और उसे चिकित्सकीय व्यवहार में कैसे लाया जाए। ’

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